ध्रुपद गायन शैली क्या है
ध्रुपद -
ध्रुपद गायन शैली शास्त्रीय संगीत की प्राचीन गायन शैली है।
अभी तक एक मत से यह निश्चित नहीं हो पाया हैं की ध्रुपद का अविष्कार कब और किसने किया।
इस संबंध में विद्वानों की कई मत है।
कुछ विद्वानों का विचार है कि द्रुपद की रचना 13वीं शताब्दी में हुई तथा कुछ के मतानुसार 15वीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने इसकी रचना की।
जो कुछ भी हो, इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राजा मानसिंह तोमर ने द्रुपद के प्रचार में बहुत हाथ बटाया।
अकबर के समय में तानसेन और इनके गुरु स्वामी हरिदास डागुर, नायक बैजू और गोपाल आदि प्रख्यात गायक ध्रुपद ही गाते थे।
ध्रुपद गंभीर प्रकृति का गीत है।
इसे गाने में कंठ और फेफड़े पर बल पड़ता है। इसलिए इसे मर्दाना गीत कहते हैं।
इसका प्रचलन मध्यकाल में अधिक था, किंतु आजकल जनरुचि में परिवर्तन होने के कारण इसका स्थान ख्याल ले ले लिया है।
अधिकांश प्राचीन द्रुपद ओके 4 भाग होते थे - स्थाई, अंतर, संचारी और आभोग।
वर्तमान समय में द्रुपद के केवल 2 भाग होते हैं - स्थाई और अंतरा।
इसके शब्द अधिकतर ब्रजभाषा के होते हैं।
इसमें वीर और श्रृंगार रस की प्रधानता होती है।
ध्रुपद चारताल, ब्रह्मताल, सूतताल, तीव्र मत्तताल, शिखर ताल आदि पखावज के तालो में गाया जाता है।
द्रुपद की संगति पखावज में होती थी, किंतु आजकल पखांवाज का प्रचार कम होने से लोग तबले के साथ ही ध्रुपद गा लेते हैं।
ध्रुपद में सर्वप्रथम नोम - तोम का सविस्तार अलाप करते हैं।
इस अलाप के भी चार भाग होते हैं। आलाप की गति उसके तीसरे अंग से धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है और इसी स्थान से गमक का प्रयोग आरंभ किया जाता है।
द्रुपद में खटके अथवा तान के समान चपल स्वर समूह नहीं दिखायें जाते हैं, बल्कि मीड़ और गमक का अधिक प्रयोग होता है।
आलाप के पश्चात सर्वप्रथम पूरे द्रुपद को उसके चारों भाग सहित गाते हैं और फिर विभिन्न प्रकार की लकारी दिखाते हैं।
ध्रुपद में लयकारी को विशेष स्थान प्राप्त है।
गीत की बंदिश द्वारा अथवा उसके शब्दों द्वारा विभिन्न बोल बनाते हुए लयकारी का विस्तार करते हैं
प्राचीन काल में द्रुपद गाने वाले को कलावंत कहा जाता था।
ख़माज राग का प्रचलित गीत " राजत रघुवीर धीर, भंजन भव भीर पीर " द्रुपद ही है।
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